कलमकारी

युही कलम लिए बैठा हूँ
गुमनाम ख़याले आये तो सही 
खिड़कियो की लफ़्ज़ों में
ये शाम ही कुछ सही नही
कभी जो रूठके जाती थी
आज तो वो भी नही ।

वक़्त का पाबंद है समा
हम वक़्त को ही बेचते है
कोई भटकता आशिक़ यहाँ
यादों पे खर्च जाता है ।

कहने को तो रास्ता है
बिल्कुल दिलपे बसता है
आज तुम वहा मैं यहाँ
बीच में ही रास्ता है ।

चौराहो के कोनो पे
या गलियों की शाम में
हम लटक-फटक टहलते थे
तबतो बात मरहम की थी
चलो अब रफू को ही कोसते है
अंजाम ने  दुख दिया ,
 बाकी याद तो प्यार ही है ।

आजकल कुछ चिड़चिड़ा सा हूँ
मन ही मन बुदबुदाता हूँ
शायरी भी डूब जाए ग़म मे
फसल आंखों की नमी पे हो
खोने के बाद भी खोने का
दर लिए घूमता हूँ ।

क्या पाया क्या खोया
दिल इसपे क्या हिसाब लेगा
मैं उस उम्मीद में डूबा
 की तू बचा लेगा
अब इसके बाद मेरा 
इम्तेहां क्या लेगा ।।

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