सड़क - चाप
बन्ध कमरे थे
कमरो में बंधा सूरज था
आजकी रौशनी सूरज की
कलको फैलाने चला था
लड़खड़ाया
पेड़ो में उलझा थोड़ा रस्ता था
फट गया
कन्धे पे मेरे भारी बस्ता था
शाम शब्दो की बोली बोलता
खुदगर्ज हम, कुछ मिला ना था
तन की प्यास मिटा नहीं
क्या लहू की रुख , कुछ भीगा ना था
एक जंगल है तेरी आँखों में
मैं राह भटकता राही था
आंखों के ताले काठ के
मैं तो सिर्फ राई का दाना था
ओढ़ता बिछाता मैं
जो चादर शब्दो से बुनता था
चमगादड़ो की सहर है ये
रोशनी किसको पसन्द था
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